Friday, June 12, 2020

अमलतास...


I, suddenly, want to be an illustrator. Even though my sketching is terrible. But I decided to add figures to my paintings. I painted this today. And it seems like a proper illustration, no? What do you think? It is based on a short story that I wrote yesterday. Please share your feedback.

(For my fellow Paint Party Friday Participants: I know you wouldn't understand the story, as it's in Hindi. But it's about a girl who watches a man sitting in the park. Everyday)


ये पेड़ ऐसा दिखता है मानो किसी शर्मीली लड़की ने सर पर चटख पीली ओढ़नी डाल रखी हो। अमलतास! धूप अब मद्धम हो चली है। मैं हमेशा की तरह अपनी खिड़की पर बैढी शाम होने का इंतजार कर रही हूँ। ऐसा नहीं है कि शाम हो जाने से मेरी ज़िन्दगी में कुछ बदल जाएगा पर दिल एक गहरी सांस भरेगा और सोचेगा कि चलो एक दिन तो गया!

खिडकियों में कुछ तो खास होता है; चाहे आप अपनी खिड़की से बाहर देखें, या बाहर से किसी खिड़की की ओर, चाहे वो ट्रेन की खिड़की हो, या फिर किसी वीरान पड़े घर की खिड़की।

ये खिड़की दरवाजा है, मेरे लिए। दुनिया से रूबरू होने का एक ज़रिया। मुझे ऐसा लगता है जैसे दो जहान के मुहाने पर बैठी हूँ। अंदर एक अजीब सी निराशा है जो हर वक्त पीछे पड़ी रहती है और बाहर एक उम्मीद जो कभी पकड़ में नहीं आती। इस एहसास ने एक नया रुप इश्ख़्तयार कर लिया है जबसे वो मिला है ― मिला है नहीं कह सकते। जब से वो दिखा है, और जबसे उसने मुझ देखा है। हां, ये ठीक है।  

आजकल ये पार्क वीरान लगता है, और अमलतास थोड़ा सा उदास। किचन से खट् खट् की ज़्यादा ही आवाज़ आ रही है। लगता है मां आज फिर नाराज़ है। आजकल ज्यादातर नाराज़ रहती है। ज़्यादा परेशान करती हूँ शायद। काम में ज़्यादा हाथ भी नहीं बटाती। वो ज़्यादा नाराज़ इसलिए भी रहती है क्योंकि पापा कुछ नहीं कहते। ज़ाहिर है, तीस की हो चुकी हूँ, अभी तक शादी नहीं हुई। कोई अच्छी नौकरी नहीं है। स्केचबुक में रंग भरने से क्या ज़िन्दगी में रंग भर जाएंगे?

मैं पास पड़े स्केचबुक को उठा कर कुछ बनाने लगती हूँ। एक बच्चों की किताब के इलस्ट्रेशन का असाइनमेंट मिला है। पर कुछ और ही बना रही हूँ। एक चेहरा।

वो यहीं बैठ रहता था। अमलतास के पेड़ के नीचे। हर शाम। पहली बार जब देखा था उसे तो कोई किताब पढ़ रहा था। कुछ चार-पांच महीने पहले। आंखों पर गोल्डेन फ्रेम का चश्मा और दुनिया से बेख़बर।  एक रोज उसने भी देखा। जैसे मेरी नज़रों को महसूस कर लिया हो उसने। आंखें इतनी गहरी कि चश्मा भी उस गहराई को समेट न सका। और मैं अपनी नज़रें टिका न सकी। पेंसिल से जल्दी जल्दी पता नहीं क्या बनाने लगी।

फिर जैसे एक सिलसिला बन गया। उसे न देखकर भी देख लेना जैसे शगल बन गया हो।

'कैसी हो, दीप्ति?' एक आवाज आई तो मैने खिड़की के बाहर देखा। शिप्रा दी हैं। प्यारा सा गोल चेहरा। छोटी-छोटी मुस्कुराती हुई आंखें। उनके बात करने के अंदाज़ में एक अपनापन है।  

मेरे होठों पर अनायास एक मुस्कान खिंच गई। मैने बस सर हिला दिया। चुप रहने की आदत सी हो गई है। और शिप्रा दी समझती हैं।

'बहुत अच्छी लग रही हो। तुम्हारे बाल कितने प्यारे हैं।'

मैं हंस पड़ी। बहुत कम लोग हैं जो मुझसे ये कहते हैं।थैंक यू।' मैंने कहा। 'आप भी बहुत सुंदर लग रही हैं।' मैंने कहा तो वो हंस पड़ी।  'तुम ठीक हो?' उन्होंने पूछा तो मैंने फिर से अपना सिर हिला दिया। 

और फिर शिप्रा दी चली गई, मगर उनका अपनापन यहीं रहेगा कुछ देर तक, मेरे पास।  

ज़िन्दगी में बहुत ज़्यादा तो नहीं चाहिए होता। कोई हाल चाल पूछ ले, कोई थोड़ी तवज्जो दे दे, तो भी काम चल जाता है।

मेरी नज़र फिर से अमलतास पर टिक गई। वो तवज्जो देने लगा था शायद। ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उसने मेरी तरफ़ ना देखा हो, या किसी दिन नहीं आया हो। तो क्या वो अनजाना शक्स मेरे लिए आता था?

ख़ैर अब इतना अनजाना नहीं है वो। एक दोपहर जब मैं बादलों को आसमान में अठकेलियाँ करते देख रही थी तो एक परिचित, खनकती हुई आवाज़ आयी। शिप्रा दी की। फिर वो नज़र आयीं किसी से बात करती हुई। वही था। उसकी नज़र पल भर के लिए मेरी खिड़की पर ठहरीं और मुझे देखकर झेंप गयीं। नजदीक से थोड़ा अलग दिखता था। 

वो फिर शिप्रा दी ओर देखकर उनकी बातें सुनने लगा। पर उसके चेहरे के भाव थोड़े बदले से थे और ये शिप्रा दी ने शायद भांप लिया क्योंकि वो तुरंत मुड़ी।
'अरे, दीप्ति!'
फिर उन्होंने हमारा परिचय कराया। उसका नाम शेखर है। कुछ महीने पहले ही उसकी यहाँ पोस्टिंग हुई है।
फिर शेखर ने एक बहुत ही साधारण मगर बहुत अच्छा लगने वाला सवाल किया ―'कैसी हैं आप?' उसकी मुस्कान कितनी अच्छी थी।

माँ ने पुकारा तो मैं उस दिन से वापस आ गयी। अमलतास वहीं है पर वो नहीं है। वो खाली जगह अब चुभने लगी है मुझे। आज दस दिन हो गए, वो नहीं आया। क्या हुआ होगा? कहीं चला गया है? एक बार दिल में आया की शिप्रा दी से पूछूं। पर पूछूं भी तो क्या? क्या उसने पूछा होगा?

कितनी अजीब बात है, कभी कभी उनकी कमी खलती है जो आपकी ज़िन्दगी का हिस्सा है ही नहीं। मेरे और शेखर के बीच कुछ भी तो नहीं था। या था? एक अदृश्य डोर। इस खिड़की से उस अमलतास की दूरी जितनी लम्बी।
पर मेरे बारे में वो जानता ही क्या है? अगर जान गया तो... या फिर... क्या वो जान गया है?

'यहाँ आओगी या चाय वहीँ खिड़की पे भिजवा दूँ?' माँ की आवाज़ तल्ख़ हो गयी है। मैंने एक लम्बी सांस भरी और अपने व्हील चेयर को ड्राइंग रूम की तरफ मोड़ लिया।

                            ★★★★★

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14 comments:

  1. It's beautiful Tarang - your writing as well as your painting. It's been ages since I read a good story in Hindi. This was so poignant. Specially that last bit when we realise she's wheel-chair bound. How little she wants from life - just a hello. It reminded me of stories I used to read as a kid in magazines like Dharmayug. You should write more in hindi.

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  2. Thank you so much, Tulika for reading and for this lovely comment. It means a lot. 💛

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  3. I don't think your sketching is terrible, I like the picture. Keep up the good work.

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  4. Bahut samay baad kucch aisa padha. koi tadak bhadak nahi magar shabd bhi ek chitra banatay huey. Ending ne to poori story summarise kardi. Mazaa aaya padhkar.

    Amaltas ki illustration bhi acchi banayi hai apnay.

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  5. Your illustration certainly tells a story, certainly looks like a proper illustration.

    -Soma

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  6. My hindi is not strong so I have to read slowly to understand. the story touched me on a different level. the slow pace, the delicate language, the sensitivity of the girl, they created magic. the end was a blow, like all good stories should have. it left a sadness that lingered long. i want to imagine that the girl and Shekhar have become friends and are happy.
    I love Amaltash. the flowers mean a lot to me.

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    1. Thank you so much, Koyel, for reading! And for leaving such a beautiful comment. It means a lot to me. 💛

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