My Hindi translation of a beautiful write up by Paro (Parvathy), with her permission. I found it on Instagram. You can check her profile Here.
So, here it goes:
अम्मा के लिए ये मानो ये एक दस्तूर था ―
बरामदे पर एक कप चाय, और बैकग्राउंड में धीमे धीमे बजता उसका पसंदीदा संगीत।
ये अम्मा और बाबा के झगड़े के बाद की सुबह थी,
वो झगड़ा जिसमें उनकी आवाज़ बादलों की गर्जना से भी तेज़ थी।
बाबा के ऑफ़िस जाने के बाद,
अम्मा मसाला चाय बनाकर बरामदे में बैठ जाती।
कैसेट प्लेयर वो गाना बजाता जो उसके दिल के करीब था,
और वो धीरे-धीरे चाय की चुस्कियां लेती।
फिर वो अपनी आँखें बंद कर लेती।
अपने आँसुओं को बहने से वो कभी रोकती नहीं थी,
एकदम बेपरवाह, कोई देखता है तो देख ले…
उस रात जब बाबा घर आते तो ऐसा लगता था
जैसे वो लड़ाई कभी हुई ही नहीं।
अम्मा उनके लिए कॉफ़ी बनाती और बाबा उनका हाथ ऐसे थाम लेते
जैसे माफ़ी माँग रहे हों,
और फिर अम्मा मुस्कुरा देतीं
जैसे उन्होंने वो माफ़ी कुबूल कर ली।
मैंने एक बार उनसे पूछा था कि क्या उन्हें चाय वाक़ई इतनी पसंद है?
उन्होंने बताया कि चाय उन्हें सख़्त नापसंद है।
मेरे परिवार की औरतों ने हमेशा से अपने ग़म को उन चीजों में दफ़्न करना सीखा है,
जिससे वो प्यार तो करती हैं, पर थोड़ी थोड़ी नफ़रत भी करती हैं।
जब पहली दफ़ा मेरा दिल टूटा था,
मैंने अपने दर्द और टूटे दिल के टुकड़ों को
कस कर अपनी मुट्ठी में भींच रखा था,
कुछ ऐसे जैसे खामोशी से इल्तिजा कर रही थी कि कोई आकर उन टुकड़ों को फिर से जोड़ दे।
तब माँ ने मुझे गले से लगाया था,
उनकी प्यार भरी गरमाहट मेरे रोम रोम में समा रही थी, मानो मेरे मन के खालीपन को भरने की चेष्टा कर रही हो।
उन्होंने ये नहीं कहा कि सब कुछ ठीक हो जाएगा,
पर उन्होंने मेरे लिए मसाला चाय बनाई।
जब मैंने चाय का एक घूंट भरा
तो उसमें मसाले के साथ मेरे नमकीन आँसुओं का स्वाद था।
और साथ ही, मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे दिल के किसी टुकड़े ने फिर से साँस ली हो।
अगली बार जब मेरा दिल मायूस हुआ,
माँ ने फिर से मेरे लिए चाय बनाई।
और फिर जैसे ये एक रिवाज़ बन गया।
हर तक़लीफ़, हर लड़ाई, हर हार, हर ग़म, हर नाक़ामयाबी के बाद,
मैं चाय बना लेती।
मैं अपने लिए तबतक चाय बनाती
जबतक मुझे मेरे दिल के जख़्म भरते हुए महसूस ना होते;
तबतक जबतक मुझे ये नहीं लगता कि मैं चाय के साथ अपने दर्द की चिंगारियों को
भी पी रही हूँ;
मैं तबतक चाय बनाती जबतक उसके स्वाद में सिर्फ लेमनग्रास, अदरक और इलायची का ज़ायका होता;
मैं तबतक चाय बनाती जबतक
उसमें वो स्वाद नहीं घुल जाता
जिससे मैंने प्यार करना तो सीख लिया
पर थोड़ी सी नफ़रत भी की।
और तब मैंने ये सीखा
कि किसी चीज़ को जाने देना कैसा होता है।
कुछ ऐसा जैसे
मसाला चाय के एक घूंट में
जरा सा, बस जरा सा नमक!
सुंदर रचना का सुंदर अनुवाद...
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया। :)
DeleteTugged at my heart, Tarang. Thanks for bringing this beautiful poem to us. The kitchen and food are such a part of the lives of women that they become places for our meltdowns as well.
ReplyDeleteThank you so much, Sonia! :))
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