Tuesday, July 5, 2022

Hope is so Stubborn





Photo by Zwaddi, Unsplash



सुबह आती है और साथ लाती है एक मुट्ठी उम्मीद। हर रोज़। दिन चढ़ता है, और मुट्ठी ढीली होने लगती है, मानो थक गयी हो। और फिर उम्मीद उन पोरों से फिसलने लगती है, हौले-हौले, और काफ़ुर हो जाती है जैसे उसे कोई फ़िक्र ही नहीं। खैर अब ऐसा भी नहीं है ―वो थम जाती है, उन्हीं दरारों में कहीं, जैसे अपने आप को तैयार कर रही हो, अगले दिन के लिए।

उम्मीद धुंधला जाती है, बेशक, पर ख़त्म नहीं होती, ये बहुत ज़िद्दी होती है।



The morning arrives with a fist full of hope. Every single day. Then the new day moves ahead, the fist loosens, like it's tired, and hope slips, slowly, through the crevices of the fingers. Evaporates, mercilessly, but not entirely. It lingers, preparing for the next day.


Hope dwindles but refuses to go. It's so stubborn!






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