Monday, January 4, 2016

दर्द का वो नायाब क़तरा...






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दर्द का एक नायाब क़तरा छिटक कर 
मेरे दामन में आया 
उसे सहेजा  मैंने,
दिल से अपनाया 
एक छोर से फिसलते अरमानों  को,
कस कर थाम था मैंने 
उसी में ढूँढा था एक सपना सलोना 
छिटकती नर्म धूप,
झील का वो किनारा, अंजाना सा 
वो धीमी मुस्कुराहटें, पहचानी सी 
छन् से टूटा वो सपना 
बस एक पल में, छिन गया मुझसे 
मालूम था मुझे...शायद,
दर्द का वो नायाब क़तरा छिन जाए ग़र कभी,
तो इतना ही दर्द होगा. 




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