Thursday, November 25, 2021

इत्तेफ़ाक़

 



          Photo by Mark Tegethoff, Unsplash



मार्च की सूनी सी दोपहर है, पर सूनापन अखरता नहीं है मुझे। खासतौर पर अगर मैं प्रकृति के करीब हूँ। ये कैफ़े मुझे बहोत पसंद है। सुंदर और शांत। सामने पहाड़ ऐसा लगता है जैसे ढाढ़स बंधा रहा हो। ठंडी हवा और नर्म धूप दरख्तों के साथ खेल रहे हैं, जैसे कोई मुकाबला चल रहा हो। मेरे हाथों में है एक गर्म चाय की प्याली, और ज़ेहन में हो तुम।


ख़ामोश दोपहर में कुछ खास होता है। ये अक्सर कुछ यादें बिखेर देती है। एक मीठी खुशबू की तरह।


तुम शायद यकीन ना करो पर मैं अक्सर तुम्हें सोचती हूँ। तुम्हारे ख़्यालों में ग़ुम रहना अच्छा लगता है। जानती हूँ कि ये अजीब है। बस दो बार मिली हूँ तुमसे। वो भी इत्तेफ़ाक़ से। और कोइ टीनएजर तो नहीं मैं...


चाय लगभग ठंडी हो चुकी है। 


कोई पूछे तो शायद बता ना पाऊं कि तुम्हारी वो क्या बात है जो तुम्हारा ख़्याल बनकर दिल में कुछ यूं उतर गयी जैसे जाने कब से जानती हूं तुम्हें। तुम्हारी आंखें, तुम्हारे मैनर्स, तुम्हारे बात करने का अंदाज़ या तुम्हारी आवाज़।


हवा का एक ठंडा, मुलायम झोंका आया और मेरे बाल मेरे गालों से खेलने लगे हैं। उन्हें अपने चेहरे से हटाया तो ख़्याल आया कि अभी तुम यहाँ होते तो क्या करते? क्या तुम धीरे से मेरे बालों को मेरे चेहरे से हटा देते?


अचानक एक आहट हुई और मैंने पलटकर देखा। ऐसा लगा जैसे मेरे ख़्यालों ने एक शक्ल इख़्तियार कर ली हो। 


क्या ये सचमुच तुम हो? सफेद फूलों से लदे खूबसूरत पेडों के पास से गुज़रते हुए। तुम चलते-चलते अचानक ठिठक गये, और मेरी तरफ देखा। धड़कनों ने मानो दौड़ लगा दी हो। घुंघराले बाल, दाढ़ी थोड़ी बढ़ी हुई। पहले एक फ़्रॉन और फिर धीमी सी मुस्कुराहट। 


लम्बे कदमों से बस कुछ सेकेंड्स में मेरे पास आ गये हो। 'तुम यहां?' 


'मेरा भी बिल्कुल यही सवाल है?' मैनें मुस्कुरा कर कहा। पास से गुजरती नदी पर धूप अठखेलियाँ कर रही हैं, मानो किसी ने कुछ कंचे बिखेर दिए हों। 'अजीब इत्तेफ़ाक़ है।'


'बार-बार इत्तेफ़ाक़ से मिलना इत्तेफ़ाक़ नहीं होता।' तुमने मेरी सामने वाली चेयर पर बैठते हुए कहा।


'अच्छा, फिर?'


'कोई इशारा होता है शायद।'


कुछ है तुम्हारी नज़रों में पहले नहीं देखा। कभी-कभी, ढेर सारे लफ़्ज़ मिलकर भी वो नहीं कह सकते जो नज़रें बस कुछ पलों में बयां कर देती हैं। 


वेटर तुम्हारा ऑर्डर लेने आया है। 'एक और चाय?' तुमने मुस्कुरा कर पूछा।


मुझे अंदाज़ा नहीं था कि तुम्हारे साथ में इतना सुकून होगा। और इस ख़्याल से अचानक एक डर घर करने लगा है - कहीं सूनापन खलने ना लगे। और अगर ऐसा हुआ और तुम नहीं हुए तो?


तुमने अचानक मेरी तरफ देखा, जैसे सुन ली हो तुमने मेरे मन की बात।


तुम्हारी आंखों में थोड़ी और देर देखूंगी तो ये नज़रें बोल ही ना पड़े। आसमान की तरफ़ देखना बेहतर ऑप्शन है। धूप धीमी और सुनहरी हो चली है। और आसमान गुलाबी, शाम के आने की खुशी में।


तुम दोस्त हो...

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5 comments:

  1. I am always left wanting more from your stories Tarang. With this one, I wanted to be in that spot, in that cafe beside those trees laden with white flowers and the sparkling river. इतने कम शब्दों में इतनी सुंदर स्टोरी! It was like a tiny oasis in my busy life.

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    1. Thank you so much for your lovely comment. Means a lot!

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  2. ऐसे खूबसूरत इत्तेफाक होते रहने चाहिए जिन्दगी में..सुंदर...

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    1. सही कहा आपने। :) शुक्रिया।

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  3. बहुत सुंदर। आप बिल्कुल मन के भाव कागज़ पर उतारते हो।

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