खिड़की से छनकर आती मीठी सी धूप कितनी खूबसूरत लगती है, और खुशनुमा। मुझे ये हमेशा तुम्हारी मुस्कुराहट की याद दिलाती है, वो मुस्कुराहट जो तुम्हारे होठों पर बमुश्किल आती है पर जब आती है तो तुम्हारी आँखों में भी बिखर जाती है।
टेबल पर शीशे के बोल में थिरकते सफ़ेद गुलाब ने जैसे धूप का सुनहरा रंग जज़्ब कर लिया है, और उसकी रूपहली चमक शीशे और पानी से टकराती हुई, परछाइयां बनकर टेबल पर छिटक गयी है। और वहीं बगल में रखी हुई उस किताब से झांकता बुकमार्क बुकमार्क नहीं है बल्कि बस का वो टिकट है जो तुम्हारी डायरी से गिर गया था। लायब्रेरी के कोने वाले टेबल पर।
'क्या तुम फिर आओगे?' मैंने ये नहीं पूछा था पर जाने क्यों ये लगा था कि अगले शनिवार को तुम मुझे वहीं मिल जाओगे, लायब्रेरी के कोने वाली सीट पर। और ऐसा ही हुआ। मैं लायब्रेरी में दाखिल हुई और तुमने किताब में गड़ी अपनी नज़रें उठायी, जैसे मेरी आहट को पहचान लिया हो। दिल में अजीब सा कुछ हुआ। तुम्हारी नज़रें मेरे चेहरे से फिसल कर तुम्हारे सामने वाली कुर्सी पर टिक गयी। जैसे कह रही हो, 'यहाँ बैठो ना।' और मैं चुपचाप वहाँ जाकर बैठ गयी। और तुम्हारे होठों पर एक धीमी सी मुस्कान खेलने लगी और फिर धीरे-धीरे ग़ुम हो गयी।
फिर अगले शनिवार और फिर उसके अगले शनिवार और फिर अगले...आज पाँचवां शनिवार है। लायब्रेरी में बातें करने की इजाज़त नहीं है। पर बातें करना जरूरी है क्या?
हमेशा की तरह आज भी तुम पहले उठकर चले गये। और हमेशा की तरह दरवाज़े से निकलने से पहले तुमने पलट कर देखा। पर हमेशा की तरह तुम एक पल में गायब नहीं हो गये। तुम्हारी नज़रें मेरे चेहरे पर एक पल को ठहरीं और फिर सरक कर टेबल पर टिक गयीं। आज फिर तुम्हारी डायरी से कुछ गिर गया था। पर वो बस का टिकट नहीं, एक सफ़ेद गुलाब था।
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